Monday 29 December 2014


नव वर्ष की नई डायरी

एक और नई डायरी लेकर

फिर एक नव वर्ष आया है

हर दिन लिखा जायेगा

एक नया पन्ना

हर दिन की होगी नई गाथा

हर सुबह की होगी नई आशा

हर रात बुनेगी नया सपना

हर उषा में दमकती किरणें होंगी

चंदा में चमकती चांदनी होगी

हर पन्ने पे बिखरेगा नया नूर

हर कलम में होगा नया सुरूर

आतंकियों का न भय होगा

अपनों से न विछोह होगा

नव वर्ष मिलाएगा बिछड़े सभी

नव वर्ष बनाएगा रिश्ते कई

उन रिश्तों की डोरी में स्नेह होगा

धरती पे बरसता मेंह होगा

फ़सलें लहरायेंगी खिलेंगे सुमन

खुशबुओं से महक उठेंगे चमन

दमन पर न किसी के दाग़ होगा

नारी का न अपमान होगा

मनुजता का न नंगा नाच होगा

नवजात को न मारा जायेगा

दुल्हनों को न जलाया जायेगा

हर घर में जन्मेगा गाँधी कोई

लायेगा अहिंसा की आंधी वही

शांति के दूत यहाँ होंगे

पाठशालाओं में मानवता के पाठ होंगे

धोकर कलुषित मन सबके

जग में एक नई सुबह होगी

नव वर्ष की इस डायरी में

हर शाम एक सुखद खबर होगी |

हर शाम एक सुखद खबर होगी ||

      ~~ सविता अग्रवाल “सवि” ~~  

Tuesday 16 December 2014



"आई हूँ मैं द्वार तेरे"

न्यारी न्यारी चीज़ें ले कर

थाली खूब सजायी है

तुझे रिझाने की खातिर

मैं द्वारे तेरे आई हूँ

      मंदिर के दर बैठी बाला

      माँग की आस लगाये है

      पंथ निहारे बैठा बौना

      पल पल हाथ फैलाये है

लुटिया में गंगा का पानी

छलकत छलकत जाए है

मुदित मन मुस्कान बिखेरे

जो दर्शन तेरा पाए है

      जीवन दाता झोली भर दो

      झंझाओं से मुक्ति कर दो

      ज्योति-पुंज अवलोकित कर दो

      चिर-मिलन की आस को मेरी

      आशीषों से पूरी कर दो

      पलकें मूँदूं , बंद पलक में

      आभा अमिट प्रज्ज्वलित कर दो

हो कर के आभारी तेरी

द्वार पे तेरे आऊँगी

तेरी करुणा और दया का

ऋण मैं दे पाऊँगी

      दान में लेकर सब कुछ तुझ से

      क्या दिखलाने आई हूँ ?

      भीख मेँ दे दो भक्ति अपनी

      बस यही माँगने आई हूँ

द्वार तुम्हारे आई हूँ मैं

द्वार तुम्हारे आई हूँ

            ~ सविता अग्रवाल "सवि" ~

Friday 26 September 2014

नव रात्री पर मेरे कुछ हाइकु

१.
महा पर्व है
नौ दुर्गे की शक्ति का
माँ की भक्ति का

२.
नव दुर्गे माँ
ज़रा-व्याधि को मिटा
चेतना जगा

३.
जय अम्बिके
विपत्ति दूर करे
जय चण्डिके

४.
परिवर्तन
लाये परिशोधन
मन प्रसन्न

५.
माता की भक्ति
सौभाग्य से मिलती
शक्ति भरती

६.
नौ दिन व्रत
संयमित जीवन
बनाता दृढ़

७.
देता जीवन
देवी आराधन में
होता सफ़ल

८.
अखंड ज्योति
धुप दीप नैवेध
पूजा अर्चन

९.
साधक मन
संकट निवारण
ज्योति प्रकाश

सविता अग्रवाल "सवि"



 

हाइकु

१.
टूटती डाल
वृक्षों से अलग हो
काँटा सी हुई
२.
एक ही वृक्ष
समेटे है अनेकों
शाख औ पात
३.
गर्मी जो आई
पानी में खेलकर
मस्ती है छाई
४.
रात अंधेरी
भूत से खड़े पेड़ 
डरूं घनेरी 
५.
गुच्छा फूलों का 
दे रहा सीख हमें 
मिल के रहो 

सविता अग्रवाल "सवि" 

Saturday 13 September 2014

     यादें
भागती रही दूर तुमसे
समय का अभाव था
दौडती ज़िन्दगी में
न कोई पड़ाव था
जानती न थी
तुम्हारी अहमियत
नादान  ही थी
समय गुज़रता गया
दिन पर दिन बीतते गए
कई दशक गुज़र गए
यादें जुडती गयीं
परतें जमतीं गयीं
आज आया है वह पड़ाव
जब यादों की परतें खुलेंगी
एक के बाद एक परत खुलती गई
यादों की याद में खोई रही
इन्हीं के सहारे ये
अकेलेपन की घड़ियाँ
सुख से बीत रहीं हैं
इनके बिना जीना था दूभर मेरा
कौन कहता है ?
यादें सतातीं हैं
रुलातीं हैं
नींदें उड़ातीं हैं
मैंने तो ये जाना है
अपनों के अभाव में
ये ही मन बहलातीं हैं
समय बिताती हैं
अकेलेपन की गठरी का बोझ
न जाने कहाँ उठा ले जातीं हैं |

           सविता अग्रवाल "सवि"   

Wednesday 11 June 2014


संस्मरण: पिता जी का प्यार  

  पौ फटते ही चिड़ियों की चहचहाट शुरू हो गई | मेरी खिड़की के एक कोने में चिड़िया ने अपना घोसला बना रखा था | छोटे छोटे  बच्चे चूं चूं कर रहे थे | थोड़ी देर में मैंने देखा कि एक चिड़ा कहीं से उड़ कर आया और कुछ देर के लिए चूं चूं की आवाज़ बंद हो गई लगा जैसे बच्चों को खाना मिल गया हो और वे शांत हो गए थे | मेरे मस्तिष्क में कई दशक पुरानी एक घटना घूम गई ..जब मैं लगभग सात या आठ वर्ष की थी | एक बार अपनी दादी के साथ उनके मायके में किसी लडकी की शादी में गई थी | विवाह के उत्सव में बहुत से सगे संबंधी आये हुए थे | दादी ने मुझे भी सब से मिलवाया | मेरे साथ की एक लडकी मिल गई बस मैंने उसके साथ दोस्ती कर ली उसका नाम इंदु था | विवाह में अनेकों रीति –रिवाज़ हो रहे थे हम दोनों को तो अपने खेलने में ही आनंद आ रहा था | सभी आपस में हंसी मज़ाक करते इधर से उधर घूम रहे थे | हर घंटे कुछ न कुछ खाने के लिए आ जाता था | महमानों का तांता लगा था |

  घर के बाहर कच्ची सड़क पर पानी का छिडकाव हो रहा था उस मिटटी की सौंधी सौंधी खुशबू से मन प्रसन्न हो रहा था | कुछ बुज़ुर्ग घर के बाहर कुर्सियां डाल कर बैठ गए और बातें कर रहे थे | कोई किसी की लडकी बड़ी हो गई है उसके लिए लड़का ढूँढने की बात करता तो कोई लड़के के लिए कोई लडकी बताओ कहता दिखाई दे रहा था | बीच बीच में कभी कभी हंसी का ज़ोरदार ठहाका लग जाता था | पूरी गली को रंग बिरंगी झंडियों से सजाया गया था |

   धीरे धीरे शाम हुई और बारात आने की तैयारी शुरू हो गई | एक कमरे में लडकी जिसका नाम सुमन था दुल्हन बनी बैठी थी | तभी बारात के बैंड बाजे की आवाजें आने लगी | मैं और इंदु भाग कर बाहर गए और बारात का इंतज़ार करने लगे | बारात आ गई –बारात आ गई कहते सभी खुश थे | दुल्हे की आरती उतारी गई | जयमाला का कार्यक्रम हुआ | सभी मिठाइयों का आनंद ले रहे थे | फेरों का समय आते आते मैं सो गई | सुमन जिसे मैं बुआ जी कहती थी उसकी विदाई सुबह को होनी थी | सुबह होते ही मैंने देखा कि कुछ बच्चे सुमन के साथ उनके ससुराल जाने की तैय्यारी

में लगे थे मेरे साथ खेलने वाली इंदु भी तैयार हो गई थी | क्यों कि अगले दिन सभी बच्चे सुमन के साथ वापिस आनेवाले थे |

मैंने भी सुमन बुआ के साथ जाने की जिद्द की | दादी के बहुत मन करने पर भी मैं नहीं मानी और रोने लगी तब सभी ने कहा की ठीक है इसे भी भेज दो और मैं भी साथ चली गई |

  सुमन की ससुराल में उसकी सास ने सबकी खूब खातिर की | हम सभी ने पकवानों का जी भर आनंद उठाया | अगले दिन सुमन की सास ने सुमन के साथ उसके घरवालों के लिए बहुत सा सामान दिया जिसमें इंदु के लिए एक गुडिया और मेरे लिए कोई और खिलौना भी दिया | परन्तु मुझे तो इंदु की गुडिया ही पसंद आयी और मैं रोने लगी | तब कुछ लोगों ने समझाया की घर जाकर ले लेना | बस मैं घर पहुँचने का इंतज़ार करने लगी | किसी तरह घर पहुंचे तो मैंने अपनी दादी से कहा कि मुझे तो वह

गुडिया ही चाहिए | इंदु भी अपनी जिद्द पर अटल थी कि यह गुडिया तो मेरी है मैं नहीं दूंगी | दादी ने बहुत समझाया और किसी तरह मुझे अनेकों लालच देकर वापिस घर ले आयी और मेरे पिताजी से कहा कि यह गुडिया के लिए बहुत रो रही थी | घर आकर भी मैंने गुडिया की जिद्द नहीं छोडी | क़रीब चार दिन बाद मैंने देखा कि पिताजी अपने हाथ में खुछ लेकर आये है और उन्होंने मुझे एक कमरे में बुलाकर कहा कि आँखें बंद करो- देखो मेरी प्यारी बिटिया के लिए परी ने क्या भेजा है – बचपन में दादी से परियों की कहानी सुन रखी थीं तो विश्वास हो गया कि सच में परी ने कुछ भेजा है | पिताजी ने कहा बोलो क्या चाहिए तुम्हें ? मेरे दिमाग में तो गुडिया का भूत ही सवार था इसलिए मैंने कहा मुझे तो गुडिया चाहिए | पिताजी ने कहा आँखे खोलो मैंने आँखें खोली तो देखा सुनहरे बालों वाली गुलाबी कपडे पहने बड़ी सी एक गुडिया मेरे हाथों में थी | मेरी खुशी का ठिकाना न रहा और मैं झट से पिताजी से लिपट गई | आज भी वह घटना याद आती है तो आँखें नम हुए बिना नहीं रहती | क्या पिता का प्यार ऐसा ही होता है ?

                    सविता अग्रवाल “सवि”                        

Friday 23 May 2014

हाइकु
१.
नव सुषमा
सजा है उपवन
झूमता मन
२.
बरखा आयी
धरा खूब नहाई
शाख मुस्काई
३.
प्रकृति मन
बादलों की गरज
हंसा आनन् 
४.
नाप न पायी 
सिन्धु की गहराई 
आयी रुलाई 
५.
अँखियाँ बंद 
तन में सिहरन 
स्नेहिल मन 
६.
नभ में भरी 
दामिनी की दमक 
लाई चमक 
७.
पक्षी किलोल 
बन्दूक की आवाज़ 
कातर शोर 

सविता अग्रवाल "सवि" 

Friday 2 May 2014


श्रमिक दिवस पर मेरे हाइकु

स्वेद बहाकर
थक घर आकर
रात बिताते
   २.
आराम त्याग
धरती को दलते
जन पलते 
   ३.
न कोई चिंता
सुख की हैं करते
चैन से सोते 
  ४.
न कोई स्वप्न
पूरा देश अपना
श्रम जीवन
  ५.
यही विजय
हलधर कहते
श्रम की जय
 
सविता अग्रवाल "सवि"