"आई हूँ मैं द्वार तेरे"
न्यारी
न्यारी चीज़ें ले
कर
थाली
खूब सजायी है
तुझे
रिझाने की खातिर
मैं
द्वारे तेरे आई
हूँ
मंदिर के
दर बैठी बाला
माँग की
आस लगाये है
पंथ निहारे
बैठा बौना
पल पल
हाथ फैलाये है
लुटिया
में गंगा का
पानी
छलकत
छलकत जाए है
मुदित
मन मुस्कान बिखेरे
जो
दर्शन तेरा पाए
है
जीवन दाता
झोली भर दो
झंझाओं से
मुक्ति कर दो
ज्योति-पुंज
अवलोकित कर दो
चिर-मिलन
की आस को
मेरी
आशीषों से
पूरी कर दो
पलकें मूँदूं
, बंद पलक में
आभा अमिट
प्रज्ज्वलित कर
दो
हो
कर के आभारी
तेरी
द्वार
पे तेरे आऊँगी
तेरी
करुणा और दया
का
ऋण
न मैं दे
पाऊँगी
दान में
लेकर सब कुछ
तुझ से
क्या दिखलाने
आई हूँ ?
भीख मेँ
दे दो भक्ति
अपनी
बस यही
माँगने आई हूँ
द्वार
तुम्हारे आई
हूँ मैं
द्वार
तुम्हारे आई
हूँ ।
~ सविता
अग्रवाल "सवि"
~
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