Wednesday 22 January 2014

क्षणिकाएं

कभी बोल देते
प्यार के कुछ शब्द
संभाल कर रख लेती
संदूकची में अपनी
बना लेती उन्हें
डूबती नैया  में पतवार
उस पतवार को हाथों में थामे
धीरे धीरे पार कर लेती
नदी की गहराई
और पढ़ लेती ,तुम्हारा मन |



कुम्हार के कच्चे बर्तन की माटी सी
पड़ी थी पानी से सराबोर
खुश थी ,मुझे पता था
मैं ढल जाऊंगी किसी भी रूप में
पर .... पता न चला कब ...
पत्थर बन गई वह माटी
आज उसे तराशने के लिए
छेनी हथोड़े की ज़रुरत आन पड़ी है |



दूसरा छोर है मुस्करा रहा
मुझे अपने क़रीब बुला रहा
मेरी असमर्थता जान छटपटा रहा
दूर खड़े हम दोनों एक दूजे के
मिलन की कल्पना से व्याकुल हैं
एक वृहत समाज बीच में खड़ा है
अथाह समुद्र बन कर
बाधक हमारे मिलन में बना हुआ
मैं और तुम यूं ही देख रहे हैं
एक दूजे को --पता नहीं कब से और कब तक ....

                                           सविता अग्रवाल "सवि"