“रूदाली का पारिश्रमिक”
जीवन यापन यही था उसका
मैयत पर रोना लोगों की
मिलता था जो कुछ भी उससे
स्वयं का पालन करती थी वह
छाती पीट कर थकी देह पर
तेल लगा कर सो जाती
अगले दिन फिर रोने को
शैय्या छोड़ कर उठ जाती
दिन एक दिन फिर ऐसा आया
नेता के घर जाना था
ग्यारह दिन का कार्यक्रम था
रोना और चिल्लाना था
पत्नी नेता जी को जो
अब स्वर्गधाम सिधारी थी
बच्चों की तो माताश्री थी
नेता जी को प्यारी थी
प्यार न होने पर भी उसको
उनसे प्यार जताना था
नेता जी का प्यार असीम था
लोगों को जतलाना था
अगले चुनाव में वोट मिलें जो
जन-संवेदन पाना था
ग्यारह दिन तक चला कार्यक्रम
वह भी थक आकर चूर हुई
पारिश्रमिक पाने को अपना
हाथ फैला कर बैठ गई
दे कर हाथ में नए नोट फिर
नेता जी उससे बोले –
जिसके घर भी रोने जाओ
सबसे ही तुम कह देना
पार्टी का जो चिन्ह है मेरी
सबको ही बतला देना
खड़ा रहूँगा हर चुनाव में
वोट मुझ ही को देना
रुदाली को सरोकार नहीं था
नेताजी की वोटों से
शीश झुका कर पैसा लेकर
गांठ बांध कर पल्लू में
आधा ढककर मुंह को अपने
धीरे से वह निकल गई
घर में आकर रोटी खाकर
शिथिल तन ले लुढ़क गई
सोच रही थी मन में अपने
कितने दिन यूँ रोंऊंगी?
दिन फिर एक ऐसा आएगा
जब मेरी मैयत होगी
कौन रोएगा लाश मेरी पर
और कंधों पर ढोएगा?
ले जाकर शमशान घाट में
अग्नि कौन लगाएगा ?
ज्वालामुखी उठा अंतर में
प्रश्नों की बौछार हुई
पाकर न कोई उत्तर बेचारी
अपने ही से हार गई
देकर के आराम देह को
आँखें बंद कर लेट गई
कुछ ही क्षण के बाद नींद ने
रुदाली को गोद लिया
और सवेरा होने तक फिर
उसे कष्ट से दूर किया ||
_सविता अग्रवाल “सवि”_