Tuesday 18 February 2014

हाइकु   ..शीत ऋतु पर

हिमानी रात
हवाओं की आंधियां
जग है शांत

थकी सी धूप
चादर ओढ कर
नभ में सोई

धुंध से ढकी
वृक्षों की टहनियां
मन उदास

क्रोधित वायु
उड़ाकर ले गई
पेड़ों से डाल

श्वेत सी शाख
पी रही ठंडा जल
विधि का दान

सिकुड़ी बिल्ली
ढूंढ रही मंजिल
राह बर्फीली

धूप न गर्म
चिल चिलाती ठण्ड
शीतल तन

         सविता अग्रवाल "सवि"
 

Sunday 2 February 2014

                                     संस्मरण
माँ की मृत्यु हुए क़रीब दो वर्ष बीत गए थे | एक दिन माँ की बहुत याद आ रही थी  सोचा कि भाई भाभी से भी मिल आउंगी  और भैया भी बीमार चल रहें है उन्हें भी देख आउंगी | पति से कहकर अपना टिकट कराया और माँ के घर चली गई | भाई भाभी ने बड़े प्यार से स्वागत किया और जिस कमरे में माँ की चारपाई होती थी वही मेरे
सोने का प्रबंध कर दिया | मैंने कमरे को सब ओर से देखा - माँ पिताजी की तस्वीर सामने की दीवार पर लगी हुई थी और दोनों की तस्वीरों पर फूलों का हार लगा हुआ था | मैंने माँ और पिताजी की तस्वीर को प्रणाम किया, लगा दोनों ही मुस्कराकर मेरा स्वागत कर रहे हैं ह्रदय खुश हो गया परन्तु एक खालीपन उस कमरे में छाया हुआ था | मेरी आँखों के सामने वह पुराना दृश्य घूम गया जहां माँ की चारपाई होती थी उसके साथ ही एक छोटी सी मेज़ हुआ करती थी जिसे माँ ने एक बार पिताजी के साथ जाकर मेले से  दो रूपए में खरीदा था और उस मेज़ का नाम भी दो रूपए वाली मेज़ रख दिया था जब भी माँ को अपनी दवाई की ज़रुरत होती तो कहतीं थी ज़रा मेरी दवाई तो ले आ, वही दो रूपए वाली मेज़ पर रखी है | हम सभी बहन भाई खूब हँसते थे और माँ से कहते कि अब आप इसका नाम बदल कर पुरानी छोटी मेज़ रख लें परन्तु माँ को तो बस दो रूपए वाली मेज़ कहना ही अच्छा लगता था | हम सब भी उसके आदि हो गए थे |चारपाई के पास ही दीवार पर माँ ने पिताजी से कहकर एक खूंटी लगवाई थी क्योंकि रात को सोने से पहले माँ के पास एक तुलसी की माला थी वह जपा करतीं थीं जिसे वे अपने हाथ से सिली हुई एक छोटी सी थैली में रखतीं थीं और सोते समय खूंटी पर लटका दिया करतीं थी उन्हें पसंद नहीं था कि माला बिस्तर पर रखी जाए | एक स्कार्फ जिसे माँ ने सर्दी के दिनों में धूप में बैठ कर बनाया था सोने से पहले वे हमेशा उसे तकिये के नीचे रख दिया करतीं थी और सुबह उठकर पहन लिया करतीं थीं | एक एक कर सभी बातें मेरे मस्तिष्क में चलचित्र की तरह घूम रही थीं | परन्तु अब दृश्य बदल गया था |.
               कमरे में  जिस चारपाई पर माँ सोतीं थीं उसकी जगह पर आधुनिक पलंग आ गया था ज़मीन पर रखी मेज़ की जगह पर सुंदर से गलीचे पर बड़ा सा फूलदान रखा हुआ था मैंने पलंग पर बैठ कर लम्बी सांस ली और एकटक दीवार पर लगी माँ पिताजी की तस्वीर को देखती रही | अपना पर्स टाँगने के लिए खूटी देखी वह भी नहीं थी उसका निशाँ भी मिटा दिया गया था दीवारों पर हरे रंग की जगह पर हलके पीले रंग की छटा बिखर रही थी |
किसी तरह अपना सामान मैंने अपने सूटकेस पर ही रख दिया और माँ पिताजी की यादों में खोयी रही पता न चला कब आँख लग गई और सुबह के पांच बजे पास की मस्जिद की अजान से मेरी आँख खुल गई | अजान सुनकर माँ हमेशा कहा करतीं थीं कि.. लो सुबह हो गई है अपने अपने कामों में लग जाओ | आज यह कहने वाली माँ नहीं थीं |
                                                                                                     सविता अग्रवाल "सवि"