Wednesday 24 October 2012

    अध बुना ख़्वाब

पूरे बुन  कर  रखे  थे  मैंने
कुछ अपने मन चाहे ख़्वाब
धीरे  धीरे  पूर्ण   हुए   वो
मन  भी शांत  हुआ  मेरा
ख्वाबों को असली में जी कर
मैंने पथ  एक  नाप  लिया
चमक दमक सी राहें थीं वें
जिन पर चल आमोद किया
देखा फिर एक ख़्वाब अचानक
सोचा  इसको  बुन  लूंगी
समय मिला ना पूरा मुझको
जीवन  संध्या  आ  पहुंची
फंदे ही गिनती रह गई मैं
बुन  पाई   न  उसे    कभी
ख़्वाब अधबुना लेकर ही मैं
दूर  जाऊँगी  इस जग  से
लेकर के कोई नया नमूना
फिर आऊँगी  इस जग  मैं |
                     
                          ~सविता अग्रवाल "सवि "~










 

हाइकु


हाइकु

शिशु जीवन
सहज,आधीन सा
काटता दिन

ठहरा पानी
झोंके से हवाओं के
मचल उठा

कोरी कलम
रंग गई तख्ती को
चारों ओर से

धक् धक् सी
निरंतर चलती
रक्त रवानी

शाखों का रंग
धूप की चमक से
निखर उठा

तपता मन
सांसों से राहत की
सरसा गया

Sunday 7 October 2012

   हाइकु

निर्मल जल
बहता कलकल
कंठ तरल

बहते रंग
मन भाव लेकर
त्रिवेणी संग

रचना रच
नवोदित लेखक
हुआ अधीर

विदेश आना
भुला गया डगर
सही राह की

युगों का तत्व
लिपियों में सुप्त है
खोए पन्नों सा

गायत्री मंत्र
उच्चारण शुद्ध हो
मनवा शांत  

 

Monday 24 September 2012


“रूदाली का पारिश्रमिक”

जीवन यापन यही था उसका

मैयत पर रोना लोगों की

मिलता था जो कुछ भी उससे

स्वयं का पालन करती थी वह

छाती पीट कर थकी देह पर

तेल लगा कर सो जाती

अगले दिन फिर रोने को

शैय्या छोड़ कर उठ जाती

दिन एक दिन फिर ऐसा आया

नेता के घर जाना था

ग्यारह दिन का कार्यक्रम था

रोना और चिल्लाना था

पत्नी नेता जी को जो

अब स्वर्गधाम सिधारी थी

बच्चों की तो माताश्री थी

नेता जी को प्यारी थी

प्यार न होने पर भी उसको

उनसे प्यार जताना था

नेता जी का प्यार असीम था

लोगों को जतलाना था

अगले चुनाव में वोट मिलें जो

जन-संवेदन पाना था

ग्यारह दिन तक चला कार्यक्रम

वह भी थक आकर चूर हुई

पारिश्रमिक पाने को अपना

हाथ फैला कर बैठ गई

दे कर हाथ में नए नोट फिर

नेता जी उससे बोले –

जिसके घर भी रोने जाओ

सबसे ही तुम कह देना

पार्टी का जो चिन्ह है मेरी

सबको ही बतला देना

खड़ा रहूँगा हर चुनाव में

वोट मुझ ही को देना

रुदाली को सरोकार नहीं था

नेताजी की वोटों से

शीश झुका कर पैसा लेकर

गांठ बांध कर पल्लू में

आधा ढककर मुंह को अपने

धीरे से वह निकल गई

घर में आकर रोटी खाकर

शिथिल तन ले लुढ़क गई

सोच रही थी मन में अपने

कितने दिन यूँ रोंऊंगी?

दिन फिर एक ऐसा आएगा

जब मेरी मैयत होगी

कौन रोएगा लाश मेरी पर

और कंधों पर ढोएगा?

ले जाकर शमशान घाट में

अग्नि कौन लगाएगा ?

ज्वालामुखी उठा अंतर में

प्रश्नों की बौछार हुई

पाकर न कोई उत्तर बेचारी

अपने ही से हार गई

देकर के आराम देह को

आँखें बंद कर लेट गई

कुछ ही क्षण के बाद नींद ने

रुदाली को गोद लिया

और सवेरा होने तक फिर

उसे कष्ट से दूर किया || 

                _सविता अग्रवाल सवि”_

 

Monday 17 September 2012

प्रिय मित्रो कुछ हाइकु लिखे हैं-

चिड़ियों का भी
बदल गया मन
पतझड़  संग


धूमिल  नभ
दिवस हुआ पूरा
छाया अंधेरा

सूर्य किरण
बिखरा रही छटा
चोटियों  पर

टूटा पत्थर
बना गया आकृति
टूट कर भी

उड़ा ले गया
विचार चपेट में
झोंका हवा का   

Sunday 16 September 2012



मातृ भाषा "हिंदी"  


हिंदी भाषा के मस्तक पर
अमिट सा तिलक लगायेंगे
हिंदी भाषी कहलाने का
गौरव  पा  इतरायेंगे
हिंदी भाषा बोल कर जग में
जन जन को मह्कायेंगे
भरत,  दधीचि, हरिश्चन्द्र की
गाथाएँ  दोहराएंगे 
मातृ भाषा है हिंदी अपनी
गीत अनेंको गायेंगे
आँचल में हम इसकी रहकर
राहें   नई  बनायेंगे
पाषाणों और शिलाओं पर
 हिंदी में लिख जाएंगे
भाषा का हम मान बढ़ाकर
सम्मानित हो जाएंगे
रुप-रेखाएं नई खींचकर
संकलित हम कर जाएंगे
आज़ादी के पंख लगाकर
नभ को भी छू आयेंगे
आओ मिल सब हिंदी प्रेमी
अखंड ज्योत जलाएंगे
आशाओं के दीप जलाकर
जग रौशन कर जाएंगे
लुप्त न हो यह भाषा अपनी
ऐसा कुछ कर जाएंगे
आने वाले कल को देकर
अमर हिंदी कर जाएँगे।

                    - सविता अग्रवाल "सवि"-
 

Friday 10 August 2012



" प्रीत और प्रतिकार "
माँगती रह गई हमेशा
प्यार का उपहार तुमसे
सजल नयनों में सजाकर
साँझ का श्रृँगार तुमसे
मौन मन आकुल सा मेरा
नीर पीता रहा विरह का
थक गई वेदन भी उर में
माँग कर अधिकार तुमसे
अनमिले वरदान मेरे
डूब कर रह गये भँवर में
दीप जलता रहा तिमिर में
बुझी सी एक आस लेकर
चाहा था मधुमास मैंने
वह तो मुझको मिल न पाया
रात पतझर सी मिली यूँ
छा गया कुम्हलाया साया
बाँध बाँधा है स्वयं पर
श्राप श्वांसों में समाया
अहसास दर्दों का छुपा है
तन में बंदी बन के मेरे
कह कर अनकही कहानी
आज उसको दूर कर दो
काजल में डूबे सपन को
धवल बन नयनों में भर दो
रात अमा की काटी मैंने
बन पूनम चाँदी तुम कर दो
प्यार की देहरी पर आकर
सुप्त हॄदय स्पंदित कर दो
कल्पना के क्षण अनोखे
याद में रह रह कर आते
शेष बस, अवशेष कुछ हैं
झोली में मेरी गिर जाते
मौन समर्पित कलिकाओं से
अधर बंद मेरे रह जाते
फूल संग शूल क्यूँ रहते ?
राज़ है क्या मुझको समझाते
आकर तुम एक बार मुझसे
झूठा ही, पर प्यार जताते
प्रीत है प्रतिकार वह ना
मनुहारी है प्रीत बताते
प्रीत और प्रतिकार के इस
द्वंद से तुम मुक्त कराते ॥ 
                   ~~ सविता अग्रवाल सवि”~~