Wednesday 27 November 2013


                कहानी 

         माँ की आँख से देखा संसार
 शाम के करीब पांच बजे थे | सूरज अस्त का समय हो रहा था | टीना रोजाना अपनी खिड़की से सुबह का उगता सूरज और शाम का डूबता सूरज देखा करती थी | यही क्रम पिछले पांच वर्षों से चल रहा था | टीना ने देखा कि एक करीब चार वर्षीय बालक बाहर सड़क पर अपनी माँ से गोदी में आने की जिद्द कर रहा था, माँ के हाथ में कुछ सामान था दोनों हाथ भरे हुए थे  वह बालक को गोद में नहीं उठा सकती थी | बालक वहीं खडा हो गया और आगे चलने का नाम नहीं ले रहा था | माँ के बहुत समझाने पर और लालच देने पर भी वह वहीं खडा रहा, माँ ने कई बार प्रयत्न किया कि वह सामान भी संभाले और बच्चे को भी गोदी में ले ले परन्तु हाथ से कुछ न कुछ गिर ही जाता था | अंत में माँ ने अपना मोबाइल निकाला और शायद टैक्सी बुलाने के लिए फ़ोन लगाया, और बच्चे के साथ सड़क के किनारे पर बस स्टॉप के पास खडी हो गयी और टैक्सी के आने का इंतज़ार करने लगी | थोड़ी देर बाद एक टैक्सी रुकी और माँ बेटे को लेकर चली गयी | परन्तु सामने देखते देखते टीना को पांच साल पहले की वह घटना याद आ गयी जब वह कॉलेज से आ रही थी और एक बस से टकरा कर बेहोश हो गयी थी उसे अस्पताल ले जाया गया था वहां जाकर पता चला कि उसकी कई हड्डियां टूट गयीं थी और आँखों की रौशनी भी जाती रही थी | तीन माह के बाद हड्डियां तो जुड़ गयीं परन्तु डाक्टर उसकी आँखों की रौशनी वापस नहीं ला सके | अस्पताल के खर्च से माँ (तृप्ति ) और पिता (राजेश ) टूट चुके थे | बेटी को दिखाई न देने से दोनों ही बहुत दुखी थे | एक दिन टीना की माँ  ने डाक्टर व्यास जो आँखों के डाक्टर थे उनसे बात की और कहा कि उसकी एक आँख टीना को लग सकती है क्या ? सभी टेस्ट हुए अंत में डाक्टर ने कहा कि यह संभव है | माँ ने डाक्टर से यह भी कहा कि इस बात को अभी टीना को न बताया जाए | राजेश को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई |

     समयानुसार एक दिन माँ तृप्ति की एक आँख निकाल कर पत्थर की आँख लगा दी गयी | और टीना को बिना बताये ही कि किसकी आँख उसे लगाई जा रही है, माँ की आँख उसे लगा दी गयी | तीन चार दिन तक पट्टी बंधी रही और जब पट्टी खुलने का दिन आया तो टीना से डाक्टर व्यास ने पूछा कि तुम सबसे पहले किसे देखना चाहोगी ? टीना ने कहा कि मैं उसे देखना चाहूंगी जिसकी आँख से मैं सब देख सकूंगी | धीरे धीरे टीना की आँख से पट्टी खोली गयी तो टीना ने देखा कि माँ सामने खड़ी है और उसकी एक आँख पर पट्टी बंधी है टीना की दोनों बाँहें माँ के आलिंगन के लिए खुल गयीं | माँ ने भी टीना को गले से लगाया और कहा - बेटी ! अब तुम यह संसार जो बहुत खूबसूरत है इसे देख सकोगी और अनुभव कर सकोगी | टीना का दिल भर आया और वह यूं ही देर तक माँ से लिपटी रही | तभी डाक्टर व्यास ने टीना से कहा कि टीना अब तुम अपनी माँ की आँख से सारा संसार देख सकती हो | माँ का यह त्याग और ऋण टीना कभी नहीं चुका पायेगी | यही सोचते सोचते वह समय आ गया जब सूरज अस्ताचल में प्रवेश कर रहा था इस मनमोहक दृश्य के लिए टीना पांच बजे से ही खिड़की में आकर खड़ी हो जाती थी वह दृश्य देखना टीना को बहुत अच्छा लगता था |वह भाग कर अन्दर गयी और माँ से लिपट कर बोली _माँ ! मैं हर जन्म में तुम्हारी ही बेटी बनूँ, यही कामना है मेरी | 

                                       सविता अग्रवाल “सवि”       

 



 

Wednesday 13 November 2013


दर्पण

टूटे दर्पण के टुकड़ों को मैं
मिला मिला कर जोड़ रही
जोड़ कर दर्पण को मैं अपने
बिम्ब अनेकों देख रही
एक टुकड़ा कहता है मुझ से
तू सुर-सुंदरी बाला है
बोला तपाक से दूजा टुकड़ा
तू मधुशाला की हाला है
तीजा टुकड़ा क्यूँ चुप रहता
बोला तू है ममता की मूरत
चौथा छोटा टुकड़ा बोला
दाग़ भरी तेरी सूरत
तोड़ कर गिनती बीच में सारी
बोला एक षटकोणी टुकड़ा
तू है मतवाली सी रूपा
और तू एक कुल-बाला है
पड़ा हुआ था किंचित सा कण
वह भी मुँह से बोल गया
मेरे रूप की अनगिन बातें
वह सहसा ही खोल गया
होकर निराश बातों से उसकी
मैंने मुख को मोड़ लिया
दर्पण के टूटे टुकड़ों को
दर्पण पर ही तोड़ दिया | 

                                  ~~ सविता अग्रवाल सवि”~~

Monday 11 November 2013


       हाइकु

१.       गूंजे दुन्दुभी
लिए संकल्प साथ
शंख नाद सी
 
   २.       स्वप्न सजे
रह गए अधूरे
माँ बनने के  

३.       कैसी ठिठोली
बूँदें गिरी नभ से
भीगी न चोली  

४.      श्रृंगार बिना
लगता है मुझको
दर्पण कोरा 

५.      बजे संगीत
पायलिया के जैसा
मन घायल 

६.      भरा समुन्द्र
फिर भी मैं प्यासी
सूखी रेती सी 

७.       सांझ की बेला
 लगता धरा पर
 रंग उकेरा 

८.      निखरा रूप
अविस्मरणीय है
लगता खूब 

९.      उम्र गुज़री
समझ भी न पाई
रही अधूरी 

१०.   भीड़ में कहीं
 दिवस बीत गया
 शाम हो गयी 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

       "जीवन मंथन"         
                        मैं  तो  काची  माटी  थी
                        जित चाहो मुझको ले जाओ
                        मन निर्मल था गंगा की तरह
                        जिसमें डुबकी ले हर बोलो
                        निर्मल मैले का द्वंद था
                        नयनों में निश्छ्ल क्रन्दन था
                        फूलों पर ओस की बूंद धरी
                        ऎसी कोमल थी देह मेरी
                        तेरा था मेरा था
                        मन मेरा कोरा कागज़ था
                        लिख डालो जिस पर पाती खरी
                        हर शाम एक नया सवेरा था
                        सागर की लहरों की भांति
                        उठते गिरते थे भाव मेरे
                        उन भावों में ना कटुता थी
                        मन सागर से भी गहरा था
                        पर कितने दिन ये रहना था
                        एक दिन तो ये सब सहना था
                        वह दिन आया जब होनी को
                        अपना रंग रूप दिखाना था
                        भूगर्भ में आते हल्लन सा
                        पृथ्वी पर आते अंधड़ सा
                        एक तूफ़ानों का ज्वार उठा
                        हिमगिरि से गिरते हिम जैसा
                        मथ डाला काची माटी को
                        मन को ना छोड़ा निर्मल भी
                        भावों पर कस कर किया प्रहार
                        शिखरों से गिरते पत्थरों सा 
                        आंधी के झोंकों से टकरा
                        फूलों पर से सब ओस झड़ी
                        पेड़ों की टूटी डाली सी
                        मानों अब है ये देह मेरी
                        मैं जान गई हूं अब ये तो
                        जीवन इसको ही कहते हैं
                        कुछ और नहीं था ये तो बस
                        एक जीवन मंथन गहरा था
                                                - सविता अग्रवाल "सवि" -

Saturday 18 May 2013

मन विचार

कभी कभी मेरे मन के द्वारे
दस्तक सी दे जाते हो
और कभी खुले नयनों में
सपने भी दिखलाते हो
कभी रात के प्रहरी बन तुम
अक्सर मुझे जगाते हो
अनबूझी सी एक पहेली
आकर के सुलझाते हो
रजनी की गोदी में बैठे
तारों सा जगमगाते हो
कभी अचानक चुपके से तुम
मधुर स्वरों में गाते हो
कभी सिमटकर पलकें मूंदे
अवचेतन से हो जाते हो
कोरों में नयनों की मेरे
कजरी सा रम जाते हो
कस्तूरी सा बन कर के तुम
घर मेरा महकाते हो
झोंका एक पवन का बन तुम
दूर बहुत उड़ जाते हो
कभी ज्वार सा आकर के तुम
तट को भी धो जाते हो
और कभी भाटा से बनकर
लहरों में खो जाते हो
कैसे बाँधूं बंधन में तुमको
तुम आते और चले जाते हो
विस्तृत से आकाश में खोकर
दूर खड़े मुस्काते हो

                           सविता अग्रवाल "सवि "
 

Sunday 3 February 2013


                 एक रात की रानी

   र्मियों के दिन थे | मधु अपने दोनों बेटों के साथ छुट्टी मनाने, माँ के पास रहने के लिए आई हुई थी | मधु का बड़ा बेटा ‘कृष’ सात साल का था और छोटा ‘श्रेय’ ढाई साल का था, माला (नानी) ने भी अपने दोनों नातियों और बेटी के लिए तरह तरह की खाने की चीज़ें बना कर रखीं हुई थीं | पूरा दिन घुमते –फिरते, खाते पीते और रसोई के कामों में निकल जाता था | रात को थककर लेटी तो कृष और श्रेय, माला के पास सोने की जिद्द करने लगे, इसलिए नीचे ज़मीन पर ही गद्दा बिछा दिया गया | माला को भी अच्छा लगता था बच्चों के साथ समय बिताना | कभी कभी तो बच्चें आतें हैं यही सोच कर उनकी जिद्द पूरी की जाती थीं | एक कम्बल लेकर लेटे ही थे कि अचानक जोर से बारिश होने लगी | दोनों बच्चे दिन में थोडा सो चुके थे इसलिए नींद उनकी आँखों में नहीं थी | माला ने सोचा एक कहानी सुनाकर दोनों को सुला दूंगी और फिर खुद भी सो जाउंगी, सुबह जल्दी उठकर अगले दिन का खाना बनाने की तैय्यारी करनी थी | परन्तु कहानी के खत्म होने पर कृष ने कहा  – नानी “अब हम खेलेंगे “ उसने कम्बल को चारों तरफ से बंद कर लिया और कहा अब यह हमारा महल है | नानी आप इस महल की रानी हैं और नानाजी जो दुसरे कमरे में सो रहे थे, कल्पना में उन्हें राजा बना दिया गया|
मम्मी (मधु) को राजकुमारी अपने डैडी को और मामा को मंत्री की उपाधी दे दी गयी |
श्रेय को छोटा राजकुमार और स्वयं को बड़ा राजकुमार बना दिया |
        रानी का सिंहासन भी स्थापित किया गया जो अनेकों रत्नों से सुसज्जित था, उस पर रानी को बैठा दिया गया, काल्पनिक पहरेदार भी दोनों तरफ खड़े किये गए जिससे रानी को कोई नुकसान न पहुंचा सके | रानी के एशो आराम के लिए सभी तरह के उपकरणों का भी प्रबंध किया गया | खेल थोड़ी देर में समाप्त हो गया | श्रेय तो खेलते खेलते पहले ही सो गया था अब कृष भी नींदों में आ गया और सोने लगा | माला को बारिश की बूंदों ने जो खिड़की पर गिर गिर कर अपना अस्तित्व मिटा रहीं थीं ,सोने न दिया | उस रात माला अपने आप को एक रानी ही महसूस कर रही थी, रानी की तरह उठाना, बैठना, चलना, आदेश देना सभी कुछ कल्पना में पंख लगाकर ऊंची उड़ान भर रहा था | यही सोचते सोचते माला की भी आँखें बोझिल होने लगीं और कब उसकी आँख लग गयी पता ही न लगा और सवेरा हो गया | सवेरे जब वह उठी तो उसने अपने पति से कहा-“एक अनूठा अनुभव जो मैंने कभी नहीं किया वह मुझे कल रात हुआ – कृष ने तो मुझे एक रात की रानी ही बना दिया “||         

                                         सविता अग्रवाल “सवि”

                                                 

Wednesday 9 January 2013

एक शहीद की छोटी सी आशा

 मैंने अपना धर्म निभाया
 सीने पर खाकर गोली को
 भारत माँ का क़र्ज़ चुकाया
 पर छोड़ा परिवार है पीछे 
 बालक नन्हा, माँ –बापू
 पत्नी का सुहाग बना था
 कुछ वर्ष मिले थे और कुछ दिन
 आशा है एक मेरी, जग से
 तुम्हें चैन से सोने में
 मैंने जो कुर्बानी दी है
 उस पर तुम उपकार करो
 कभी कभी मेरे फोटो पर
 हार सुमन का दान करो
 मेरे बूढ़े माँ –बापू का
 मरहम बन उपचार करो
 अंतिम साँसें जब ली थीं मैंने
 बस इतना ही ध्यान किया
      देश मेरे में रहने वालों
      तुम सब को नमन किया |
             ~ सविता अग्रवाल “सवि”~