"जीवन मंथन"
मैं तो काची माटी थी
जित चाहो मुझको ले जाओ
मन निर्मल था गंगा की तरह
जिसमें डुबकी ले हर बोलो
निर्मल मैले का द्वंद न था
नयनों में निश्छ्ल क्रन्दन था
फूलों पर ओस की बूंद धरी
ऎसी कोमल थी देह मेरी
न तेरा था न मेरा था
मन मेरा कोरा कागज़ था
लिख डालो जिस पर पाती खरी
हर शाम एक नया सवेरा था
सागर की लहरों की भांति
उठते गिरते थे भाव मेरे
उन भावों में ना कटुता थी
मन सागर से भी गहरा था
पर कितने दिन ये रहना था
एक दिन तो ये सब सहना था
वह दिन आया जब होनी को
अपना रंग रूप दिखाना था
भूगर्भ में आते हल्लन सा
पृथ्वी पर आते अंधड़ सा
एक तूफ़ानों का ज्वार उठा
हिमगिरि से गिरते हिम जैसा
मथ डाला काची माटी को
मन को ना छोड़ा निर्मल भी
भावों पर कस कर किया प्रहार
शिखरों से गिरते पत्थरों सा
आंधी के झोंकों से टकरा
फूलों पर से सब ओस झड़ी
पेड़ों की टूटी डाली सी
मानों अब है ये देह मेरी
मैं जान गई हूं अब ये तो
जीवन इसको ही कहते हैं
कुछ और नहीं था ये तो बस
एक जीवन मंथन गहरा था
- सविता अग्रवाल "सवि" -
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