Wednesday 24 October 2012

    अध बुना ख़्वाब

पूरे बुन  कर  रखे  थे  मैंने
कुछ अपने मन चाहे ख़्वाब
धीरे  धीरे  पूर्ण   हुए   वो
मन  भी शांत  हुआ  मेरा
ख्वाबों को असली में जी कर
मैंने पथ  एक  नाप  लिया
चमक दमक सी राहें थीं वें
जिन पर चल आमोद किया
देखा फिर एक ख़्वाब अचानक
सोचा  इसको  बुन  लूंगी
समय मिला ना पूरा मुझको
जीवन  संध्या  आ  पहुंची
फंदे ही गिनती रह गई मैं
बुन  पाई   न  उसे    कभी
ख़्वाब अधबुना लेकर ही मैं
दूर  जाऊँगी  इस जग  से
लेकर के कोई नया नमूना
फिर आऊँगी  इस जग  मैं |
                     
                          ~सविता अग्रवाल "सवि "~










 

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